Pitra Paksha, Shraddha Paksha, Shraddha Pitra Paksha
Pitra Paksha / Shraddha Paksha : – दोस्तों, आपके मन में एक सवाल जरूर आता होगा की आपके द्वारा किए गए श्राद्ध ( Shraddha Pitri Paksha ) से क्या सच में पितृ सचमुच तृप्त होते हैं और यदि ऐसा होता है तो यह कैसे संभव है। आइये जानते इसके कुछ जवाब।
पितरो के अतृप्ति होने के कारण ( Shraddha Pitra Paksha )
1. कुछ अतृप्त इच्छाएं रहती है – जैसे राग, क्रोध, द्वेष, भूखा, प्यासा, लोभ, वासना संभोगसुख से विरक्त आदि इच्छाएं और भावनाएं का अधूरा रहना ।
2. अकाल मृत्यु – जैसे की व्यक्ति असमय ही मर जाता जिसके कारण हो सकते है आत्महत्या, दुर्घटना, हत्या, या किसी रोग के कारण ।
3. मनुष्य द्वारा अधर्म करना ही अतृप्तता का सबसे बड़ा कारण है।
4. चित्त और कर्म :- मनुष्य के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह क्या समझता है, वह क्या सोचता हैं, क्या बोलता और क्या सुनता हैं। जरुरी ये हैं कि मनुष्य क्या करता हैं, क्या मानता हैं और सबसे जरुरी वह क्या धारणा पालता हैं। क्योंकि यह सारी चीज़े चित्त का एक अहम हिस्सा बन जाती है। और यह भी जानना जरुरी है की मनुष्य की जो चित्त है उसकी गति प्रारब्ध और उसके द्वारा वर्तमान में किये गए कर्मों पर आधारित होती है।
5. बुरे कर्म :- इस धरती पर मनुष्य अपनी जिंदगी में जाने – अनजाने कई अपराध या बुरे कर्म करता रहता है। बुरे कर्मों का फल मनुष्य को भुगतना ही होता है। आत्महत्या करना, हत्या करना, बलात्कार, किसी का अहित करना या किसी भी निर्दोष प्राणि को सताना, चोर, क्रोधी, नशेड़ी, डकैत, अपराधी ऐसे लोग मरने के बाद हमेशा ही बहुत ज्यादा दु:खी और संकट में रहकर अतृप्त हो ही जाता हैं।
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कैसे तृप्त होते हैं पितृ?
1. अन्न से सिर्फ और सिर्फ भौतिक शरीर ही तृप्त होता है परन्तु अग्नि को अन्न दान देने से सूक्ष्म शरीर (आत्मा का शरीर) और प्राणी का भी मन तृप्त होता है। इसी तरह के अन्न दान (अग्निहोत्र) से नभ(आकाश) मंडल के सारे पक्षी भी तृप्त हो जाते हैं। पिंडदान, तर्पण, धूप देने से आत्मा की तृप्ति होती है। तृप्त आत्माएं यानी की संतुष्ट आत्माये कभी प्रेत नहीं बनतीं। इस लिए रिश्तेदारों द्वारा किये गए क्रिया कर्म ही आत्मा को इतनी ताकत देते है की आत्मा पितृलोक तक पहुंच सके और फिर से दूसरे जन्म की प्रक्रिया में शामिल हो पाती है। जिस मृतक व्यक्ति के परिजन अपने मृतक रिश्तेदार का श्राद्ध कर्म नहीं करते उनके प्रियजन भटकते रहते हैं। श्राद्ध और क्रिया कर्म ही ऐसी विधि है जिसे करने से आत्मा को सही तृप्तता प्राप्त होती है और वह भटकने से मुक्त हो जाता है।
2. मनुष्यों का भोजन को अन्न कहते है और जैसे पशुओं का भोजन तृण कहते है उसी तरह देवता और पितरों का भोजन अन्न का ‘सार तत्व’ है। सार तत्व का अर्थ है गंध, रस और उष्मा। हमारे देवता तथा पितर गंध, रस तत्व से तृप्त हो जाते हैं। देवताओं के लिए अलग तरह और पितर के लिए अलग तरह के गंध और रस तत्वों का निर्माण कर उन्हें अर्पण किया जाता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार वैदिक मंत्रों द्वारा ही पितर तक विशेष प्रकार की गंध और रस तत्व पहुंच जाती है।
3. ‘सोम’ उस अन्न को कहा जाता है जिससे पितरों का तर्पण किया जाता है और उसी का दूसरा नाम “रेतस” भी है। रेतस को चावल, जौ आदि के मिश्रण से बनाया जाता है। कंडे को जलाने क्व बाद उस पर गुड़ और घी डालकर गंध निर्मित की जाती है। उसी पर विशेष अन्न अर्पित किया जाता है। कुश, अक्षत, तिल और जल के साथ पिंडदान और तर्पण किया जाता है। अंगुठे से पितरों और अंगुलियों से देवता को अर्पण किया जाता है।
4. हमारे पुराणों और शास्त्रों के अनुसार देवताओं और पितरों की योनियों में वह शक्ति होती है जो दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर से की हुई पूजा-अन्न भी ग्रहण कर लेते हैं और दूर से की हुई स्तुति से भी संतुष्ट हो जाते हैं। इसके साथ ही ये वर्तमान, भूत और भविष्य से सब कुछ जान लेते है और सर्वत्र पहुंचने की शक्ति रखते है। मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति और पांच तन्मात्राएं (श्रवण, स्पर्श, दृष्टि, स्वाद और गंध) के साथ इन नौ तत्वों का बना हुआ उनका ही शरीर ऐसा ही करने की क्षमता रखता है।
5. ‘अमा’ एक सूर्य द्वारा निकलने वाली किरणों में सबसे प्रमुख होती है है। इस अमा नामक प्रधान किरण के तेज के द्वारा ही सूर्य सारे लोको यानी तीन लोको को प्रकाशमान करता हैं। सूर्य की उसी अमा एक विशेष तिथि पर वस्य अर्थात चन्द्र का भ्रमण होता है इसी किरण के द्वारा चन्द्रमा के उर्ध्वभाग से पितर धरती पर आते हैं। तब उन पितरों पंचाबलि धूप-दीप, पिंडदान, कर्म, गो ग्रास और तर्पण के माध्यम से तृप्त किया जाता है।
मृत्युलोक में किया गया श्राद्ध से वही मानव पितर तृप्त होते है, जो पितृलोक की यात्रा कर रहे होते हैं। वे सारे पितर तृप्त होकर श्राद्ध करने वाले के पूर्वजों को जहां भी उनकी स्थिति में जाकर तृप्त करते हैं। यदि किसी पूर्वज देव योनि को प्राप्त हुए हो तो मनुष्य द्वारा किये हुए अर्पित का अन्न-जल वहां अमृत कण के रूप में उन्हें प्राप्त होगा क्योंकि देवता हमेशा ही अमृत पान करते हैं।
यदि किसी के पूर्वज मनुष्य योनि में गए होते है तो उन्हें अन्न के रूप में प्राप्त होता है और पशु योनि में होते है तो घास-तृण के रूप में अर्पण किये हुए पदार्थ की प्राप्ति होगी। यही पूर्वज सर्प और आदि योनियों में होते है तो वायु रूप में, यदि यक्ष योनियों में हो तो जल आदि पेय पदार्थों के रूप में उन्हें श्राद्ध पर्व पर अर्पित किये गए पदार्थों का तत्व मिलेगा। श्राद्ध पर विधि पूर्वक किये गए अर्पण का भोजन एवं तर्पण का जल पितरों को उनकी योनियों के अनुसार मिल मिल ही जाता है।
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