Kamleshwar Mahadev कमलेश्वर महादेव जहाँ लंकापति ने चढ़ाये अपने शीश. . . .

By | 24 June 2023
Kamleshwar Mahadev history

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आज एक ऐसे मंदिर की कथा आपके लिए लेकर आये जो एक प्रसिद्ध शिव भक्त से जुडी है। शिव भक्तो के नाम जिसके बिना अधूरा है, जी हाँ हम बात कर रहे है लंकाधिपति रावण। हमारे पुराणों के अनुसार इस स्वयं लंकाधिपति रावण ने इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना की थी। 

हमारे देश और राजस्थान में झीलों की नगरी के नाम प्रसिद्ध उदयपुर से लगभग 80 कि. मी. झाडौल तहसील के आवारगढ़ की पहाडिय़ों पर एक शिवालय मौजूद है जो काफी प्राचीन मंदिर है जिसे लोग कमलनाथ महादेव के नाम से जाने जाते है।

हमारे पुराणों एवं धार्मिक ग्रंथो के अनुसार इस मंदिर में स्थित शिवलिंग की स्थापना स्वंय दशानन रावण ने की थी। यह मंदिर ही वो स्थान है जहां पर दशानन रावण ने भगवान शिव को मनाने के लिए अपने शीश को अग्निकुंड में समर्पित कर दिया था। उसकी इसी भक्ति और समर्पित भाव की वजह से भगवान् शिव ने  नें रावण की नाभि में अमृत कुण्ड स्थापित होने का वरदान दिया था। शिवजी के इस मंदिर की सबसे बड़ी महत्ता यह है की यहां देवाधिदेव महादेव से पहले दशानन रावण का पूजन होता हैं क्योकि यह भी एक मान्यता है रावण का पूजन महादेव से पहले नहीं किया गया तो आपके द्वारा की गई सारी पूजा व्यर्थ जाती हो जायेगी।

कमलनाथ महादेव की कथा-

हमारे पुराणो और धार्मिक ग्रंथों में वर्णित कमलनाथ महादेव की कथा-

एक बार की बात है लंकाधिपति रावण भगवान शिव-शंकर को लंका ले जाने के मन से कैलाश पर्वत आ पहुंचता है और वही पर कठोर तपस्या करने लगा। 

रावण के कठोर तप से अति-प्रसन्न होकर भगवान शिव शम्भो ने रावण से कहा की – “हे लंकापति, मैं आपकी कठोर तपस्या से अत्यधिक प्रसन्न हुआ हूँ, अतः आप आपके लिए उचित वरदान मांग लीजिये। इस पर दशानन ने कहा की “हे प्रभु, मुझे किसी वर की नहीं किन्तु आपकी आशा है, कृपया आप मेरे साथ मेरे निवास लंका में विराजमान होकर मुझे और मेरे लंका नगर को कृतार्थ कीजिये।” भगवान शिव ने अपने भक्त का मान रखते हुए, शिवलिंग के रूप में उसके साथ लंका जाने को तैयार हो गए, और उन्होंने रावण को एक शिवलिंग देते हुए कहा की इस शिवलिंग को शिव जानकर ले जाना कित्नु मेरी शर्त यह है की आप धरती मार्ग से ही लंका तक जाओगे और रखी कि यदि लंका तक पहुंचने से पहले आपने कही भी शिवलिंग को रखा तो मैं उस शिवलिंग के साथ वहीं स्थापित हो जाऊंगा। कैलाश से लंका का रास्ता बहुत ही कठिन था और अति उत्साह में रावण शर्त मान गया और निकल पड़ा कितनी रास्ते में दशानन की थकने लगा और वह विश्राम करने के लिए एक स्थान पर रुका लेकिन थकान के कारण वह यह भूल गया की शिवलिंग नीचे नहीं रख सकते और उसने शिवलिंग नीचे रख दिया। 

विश्राम के बाद जब वह फिर से शिवलिंग उठाने लगा तो शिवलिंग उससे से हिला भी नहीं, तब रावण को अपनी भूल का एहसास हुआ और पश्चाताप करने के लिए वह उसी स्थान फिर से तपस्या करने लगे। चूँकि वह दिन में एक बार जरूर भगवान शिव का सौ कमल के फूलों के साथ पूजन किया करता था। ऐसा करते-करते रावण ने कई साल वहा बिता दिए।  और अब रावण अपनी तपस्या के अंतिम दौर में था। उधर देवताओं ने ब्रम्हाजी से प्रार्थना की यही वह शिवजी को अपने साथ ले गया तो हम और आम मनुष्य फिर से कभी शिव के दर्शन नहीं कर पाएंगे और लंका शिवजी के कृपा से अजेय हो जायेगी। ब्रम्हाजी ने देवताओं की बात मानली और ब्रम्हाजी ने उसकी तपस्या विफल करने के लिए एक दिन पूजा के समय एक कमल के पुष्प को चुरा लिया। जैसे ही रावण ने देखा की एक पुष्प काम है तो उसने निसंकोच होकर अपना एक शीश काटकर भगवान शिव को अग्नि कुण्ड में समर्पित कर दिया। अब भोलेनाथ तो रावण की इस कठोर भक्ति से फिर से प्रसन्न हो गए और फिर से रावण ने उनके साथ चलने का आग्रह किया पर शिवजी ने पुराने वरदान का स्मरण करवाते हुए उसे कोई और वरदान के लिए कहा तो रावण उनसे कहा “प्रभु, मेरी आपके सिवाय कोई और आशा नहीं है, मैं लंका से कैलाश सिर्फ आपको लेने ही आया था और अगर आप मेरी लंका में रहेंगे तो मेरा राज्य अजेय रहेगा और मेरा भी रक्षण हो जाएगा जो मेरे अमरता का ही वरदान होगा” तुरंत ही शिवजी ने कहा “मैं आपकी नाभि में एक अमृत कलश होने का वरदान देता हूँ, जब तक तुम इसका रक्षण करोगे तब तक तुम अमर ही रहोगे और तुम अमर रहोगे तो तुम्हारा राज्य भी अजेय ही रहेगा”। इसके साथ ही इस स्थान का नाम कमलनाथ महादेव होने की घोषणा कर दी।

पैदल ही करना पड़ता है पहाड़ी का सफर  

मंदिर में जाने के लिए आप पहाड़ी के निचे स्थित शनि महाराज के मंदिर तक तो अपने वाहन के साथ ले जा सकते है पर आगे का  2 किलोमीटर का सफरबिना वहां के पैदल ही पूरा करना पडेगा। कहा जाता है की इसी स्थान पर भगवान श्री राम ने भी अपने वनवास के काल का कुछ समय बिताया था।

आवरगढ़ की पहाडिय़ों का ऐतिहासिक महत्व भी है – 

झाला राजाओ की जागीर  झालौड़ था। झालौड़ से तकरीबन 15 किलोमीटर की दुरी पर आवरगढ़ की पहाडिय़ों में मौजूद एक किला आज भी इतिहासकारो को लुभाता है।  इस किले को महाराणा प्रताप के दादा के दादा ने बनवाया था। जब अकबर ने चित्तौड़गढ पर आक्रमण किया था, उस समय आवरगढ़ का किला ही चित्तौड़गढ़ की सेनाओं के लिए एक सुरक्षित स्थान माना जाता था। जब सन 1576 में महाराणा प्रताप और अकबर की सेनाओं के बीच हल्दी घाटी का युद्ध  हुआ तब महाराणा प्रताप के घायल सैनिकों को यही पर उपचार के लिए लाया जाता था। महान झाला वीर मान सिंह ने अपना इसी युद्ध में अपने प्राणो का  बलिदान देकर महाराणा प्रताप के प्राण की रक्षा की थी। 

झालौड़ में सर्वप्रथम यही होता है होलिका दहन-

इसी किले में सन 1577 में महाराणा प्रताप ने होलीका दहन किया था। तभी से पुरे झालौड़ में सबसे पहले यही होलिका दहन होता है। आज भी हर साल  महाराण प्रताप के अनुयायी और झालौड़ के लोग होली के अवसर पर पहाड़ी पर एकत्रित होते है और कमलनाथ महादेव मंदिर के बड़े पुजारी होलिका दहन की शुरुआत करते है। यहाँ के दहन के बाद ही समस्त झालौड़ क्षेत्र में होलिका दहन शुरू किया जाता है।

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